जनता
का लोकपाल भोजन
जनपक्ष: सरकार! हम भूख से तड़प रहे
है। कृपया हमको खाने को दाल, चावल सब्ज़ी दे दिजिये!
ऐसा भोजन मेरे
स्वास्थ्य के लिये अति-आवश्यक है।
सरकार:
खर्र.....खर्र....!
जनपक्ष: सरकार! ... ??? ... सरकार!
सरकार: चलो हटो! सोने दो हमको। चले
आते है नाक मे दम करने। जानते नही हम कौन हैं?
..... लगभग
42 साल बाद......
जनपक्ष: सरकार! हम भूख से मर रहे है।
कृपया हमको खाने को दाल, चावल सब्ज़ी दे दिजिये!
सरकार: चले आते है नाक मे दम करने।
जानते नही हम कौन हैं?
जनपक्ष: सरकार जानते है तभी तो आये
हैं। आप को हम लोगों ने ही भेजा था यहाँ हम सबके लिये। अगर आप ही हमारी बात नहीं
समझेंगे तो मजबूरन हमको अंशन पर बैठना पड़ेगा!
सरकार: अच्छा! चलो ठीक है, चलो मिल
कर तुम्हारा भोजन तैयार करते है।
जनपक्ष: जी बहुत अच्छा!
.... लगभग
4 महीने बाद .....
…. भोजन थाली सामने परोसे जाने से ठीक पहले.....
सरकार:
(जनपक्ष से)
देखो मेरा मानना है की, जो भोजन हम दोनो मिल कर बना रहे थे, वो थोड़ा सही नही है।
हम सरकार है, जनता के साथ कैसे भोजन बना खा सकते है? इसलिये, अभी तुम लोगों ने जो
भोजन के लिये मसाला तैयार किया है, वो अब हम तुम्हारे इस भोजन मे इस्तेमाल नहीं
करेंगे। इस मसाले के बगैर ही अब तुमको ये भोजन लेन होगा!
जनपक्ष: पर ये मसाले भी भोजन की
पूर्ण पौष्टिकता के लिये उतना ही आवश्यक है जितना की दाल मे नमक, सब्ज़ी मे तेल और
चावल मे पानी। ये हमारे स्वास्थ्य के लिये भी आवश्यक है।
सरकार: हुम्म! तो ठीक है। हमारे पास खानसामों
की फौज है। चलो हम उनसे तुम्हारा भोजन बनवाते है। उनसे हर कोइ अपनी बात कह सकता है
और हमेशा से भोजन वही बनाते आये है।
.... लगभग
3 महीने बाद .....
…. एक बार फिर, भोजन थाली सामने परोसे
जाने से ठीक पहले....
सरकार: देखो खानसामों की फौज मे से
कुछ ने कहा है की इस तरह का भोजन खाने की तुम्हारी आदत नहीं है। इसलिये तुम्हारे
भोजन मे से अब हम दाल का नमक हटा ले रहे है। पर हाँ देखो क्युँकि हम तुम्हारी ही
सरकार है तो हम अब तुम्हारा बनाया थोड़ा सा मसाला भी इस भोजन मे डाल देते है। अब तो
तुम खुश हो ना..?
जनपक्ष
(सरकार से):
पर माई बाप जी! इस तरह का भोजन तो ना ही पौष्टिक होगा ना ही स्वास्थ्य लाभ।
सरकार: भाई ये तो हद्द ही कर दी
तुमने! जाओ अब इस भोजन मे अब तुमको तेल भी नही मिलेगा। जाओ बाहर और भूखे भिखारी की
तरह शोर मचाते रहो।
सम्भवतः इस सरकार को ये नही समझ
मे आ रह है कि, किसी भी
भोजन मे नमक, तेल, मसाला सबकी ज़रूरत होती है और
किसी एक पदार्थ का ना होन या कम मात्रा मे होना भोजन के संतुलन को खराब कर देता
है। ना जाने क्यूँ ये सरकार खाना बनाने का अपना काम छोड़ कर कि लेन-देन की भाषा मे
बात कर रही है?
संघर्ष के इस
44वें साल मे अब देखना ये है कि हम सब कैसा भोजन, खैरात मे, अपनी ही सरकार से पाते
है? या फिर इन लोगों को अपने साथ बैठकर अपनी ज़रूरत के हिसाब से भोजन बनाने और खाने
पर मजबूर कर पाते है? ये बीरबल की खिचड़ी कई वर्षों से हमारे दिये के उपर पकने का
ढोंग कर रही थी, पर जिस पेड़ की टहनी पर ये खिचड़ी की हाँडी चढी थी, अब उस पेड़ ने
खुद ही लौ की आँच को पकड़्ना आरम्भ कर दिया है!