Friday, October 1, 2010

अयोध्या ?? !!

रोज़ की तरह हम दोनो ने नुक्क्कड़

पर जब चाय का घूँट लगाया था...

तभी कुछ आपा-धापी की आहट ने

हम दोनो का ध्यान बटाया था।

कुछ मोड़ दोनो पार कर पहुँचे तो देखा,

तमाशाईयों ने चौराहे पर बाज़ार लगाया था!

कुछ चीखती आवाज़ों की गूँज थी..

कुछ चमकती रोशनी का साया था।

दोनो के मन मे बस एक ही सवाल,

क्या अब भी मन नही भर पाया था?

बरसों पहले एक ईँट जो निकली, उसने

दीवार ही नहीं बहुत कुछ गिराया था।

सिर्फ एक धधकते शोले ने

बहुत कुछ राख़ बनाया था....।

वहशीयत की उस आग ने

अन्दर भी कुच जलाया था।

नफ़रत की उस आँधी ने

हम दोनो को भटकाया था।

कोलाहल के बाद वीराने मे

जब हमने एक कोना पाया था,

आईने मे देख ख़ुद का अक्स

बहुत घबराया, शर्माया था...!

जहाँ एक ने टटोला ख़ुद को...

मैने क्या मन-मन्दिर मे राम बसाया था?

तो दूसरा था हैरान पूछ कर...

क्या उस चार-दीवारी मे ही अल्लाह को पाया था?

दोनो के मन मे बस एक ही सवाल,

क्या अब भी मन नही भर पाया था?

क्युँ भूल गये, हम दोनो ने मिल कर,

अंग्रेजों से इस धरती को आज़ाद कराया था!!

दोनो ने फिर साथ साथ चेताया..तमाशाईयों

क्युँ मतलब और झूठ का व्यापार लगाया है?

आज हम दोनो ने फिर एक हो कर जब,

अपने इस साँझे-आँगन मे गुलशन सजाया है!