रोज़ की तरह हम दोनो ने नुक्क्कड़
पर जब चाय का घूँट लगाया था...
तभी कुछ आपा-धापी की आहट ने
हम दोनो का ध्यान बटाया था।
कुछ मोड़ दोनो पार कर पहुँचे तो देखा,
तमाशाईयों ने चौराहे पर बाज़ार लगाया था!
कुछ चमकती रोशनी का साया था।
क्या अब भी मन नही भर पाया था?
दीवार ही नहीं बहुत कुछ गिराया था।
वहशीयत की उस आग ने
अन्दर भी कुच जलाया था।
हम दोनो को भटकाया था।
जब हमने एक कोना पाया था,
आईने मे देख ख़ुद का अक्स
बहुत घबराया, शर्माया था...!
मैने क्या मन-मन्दिर मे राम बसाया था?
तो दूसरा था हैरान पूछ कर...
क्या उस चार-दीवारी मे ही अल्लाह को पाया था?
क्या अब भी मन नही भर पाया था?
अंग्रेजों से इस धरती को आज़ाद कराया था!!
क्युँ मतलब और झूठ का व्यापार लगाया है?
अपने इस साँझे-आँगन मे गुलशन सजाया है!
1 comment:
Very thought provoking words... Excellent writing!
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